Sunday, October 26, 2014

टाइगर देखना है तो रणथम्भौर जाइए

वो रहा, कहां, अरे वो सामने, कहां? अच्छा वो, काफी मशक्कत और चश्मा ऊपर-नीचे करने के बाद मेरी नजर पेड़ों के झुरमुट को चीर, नाले के उस पार, गुफा के आधे अंदर और आधे बाहर लेटे बाघ पर जाती है।
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पहली प्रतिक्रिया यही है कि यह कितना बड़ा जानवर है। और यह कहते-कहते आवाज जाने क्यों बिलकुल धीमी हो जाती है जबकि हमारे और सोए हुए बाघ के बीच की दूरी इतनी है कि चिल्लाने पर भी उसे सुनाई न दे। खुले जंगल में मेरा बाघ से यह पहला साक्षात्कार है।

हाथ के रोएं कुछ खड़े महसूस होते हैं। एक हाथ अनायास बेटे को सुरक्षा घेरे में ले लेता है। अब तक कई गाड़ियां रुक चुकी हैं। हर ड्राइवर दूसरे को लताड़ रहा है कि आगे बढ़ो लेकिन सवारियों का फोटो खींचने से दिल भरे तब न! और जब गाड़ियों में दुनिया के जाने-माने वाइल्ड लाइफ फोटोग्राफर सवार हैं तो कौन आगे बढ़ेगा?

आखिरकार ट्रैफिक खुलता है और हम आगे बढ़ने लगते हैं। सभी को लगता है जंगल में प्रवेश के कुछ मिनटों के अंदर ही मकसद सफल हो गया, बाघ को उसके प्राकृतिक रूप में देख लिया, बिना पिंजरों के, अब आगे क्या?

* को उसके प्राकृतिक रूप में करीब से देखने का सबसे बढ़िया अवसर यहीं पाया जाता है। * गर्मियों की शुरुआत बेहतरीन मौका है, क्योंकि झाड़ियां बहुत घनी नहीं होतीं और टाइगर आसानी से दिखते हैं।
ुछ दूर तक हिरणों, साम्भरों के झुंड और लंगूरों के करतब हमें आकर्षित करने में विफल हो जाते हैं। चर्चा बाघ केंद्रित हो चुकी है। ड्राइवर साहब में दो दशक से ज्यादा सेवाएं दे चुके हैं।

उनका टाइगर इन्साइक्लोपीडिया चालू है। दोपहर तेजी से शाम की ओर बढ़ती है। हम टाइगर रिजर्व के एक जोन का फेरा लगा चुके हैं। गाड़ियां वापसी की ओर हैं तभी झाड़ियों से काली धारियां निकलती हैं। लंबा-चौड़ा बाघ हमारी गाड़ी की ओर लंबे डग भरता हुआ आ बढ़ता है। हमारी आंखों को उसकी चाल मस्तमौला-सी दिखती है।

लेकिन जब वह पलक झपकते कच्ची सड़क पर उतर आता है तब उसकी गति का अंदाजा लगता है। ड्राइवर साहब बताते हैं कि यह वही बाघ है, जो अब सोकर उठ चुका है, टी-28।

उसकी शाम की सैर का वक्त हो चुका है। तब तक टी-28 कच्ची सड़क को हमारे सामने से पार कर जाता है। इतना पास कि हाथ बढ़ाओ तो छू जाए। उसने हमारी ओर देखने की ज़हमत नहीं उठाई। लेकिन मेरा गला सूख रहा है। एक हथेली बेटे का मुंह बंद कर रही है, कुछ बोल न दे, बाघ डिस्टर्ब हो गया तो? अरे, ये क्या, ड्राइवर गाड़ी बाघ के पीछे लगा देते हैं।

* रणथम्भौर में कुल 52 बाघ हैं। * हिरण, साम्भर, चीतल, तेंदुए, लेयोपार्ड, जंगली सूअर, लंगूर, घड़ियाल और अनेक किस्म के वन्य और जलपक्षी बहुतायत में मौजूद हैं।
कुछ देर बाद बाघ कच्ची सड़क छोड़ जंगल में घुस जाता है। हिरणों को हसरतभरी निगाहों से देखता है, लेकिन पलक झपकते फिर सड़क पर। गाड़ी स्टार्ट, रुको, यह तो सड़क के बीचोबीच बैठ गया, पंजे सहलाए, लंबी उबासी और लेट गया। लो।

क्लिक, क्लिक, क्लिक, ले लो मनुष्यों, जितनी फोटो चाहिए। यह दृश्य हमारी उम्मीदों से बढ़कर है। टाइगर साइटिंग तो सुनी थी, मगर 25 मिनट का साक्षात्कार! ये तो सोचा भी न था। कभी सड़क, कभी झाड़ियों में टी-28 के साथ रहकर हम लौट जाते हैं। लगता नहीं वह शिकार के मूड में है।

अगला दिन, एक और सफारी। हमारा लालच बढ़ता जा रहा है। सुबह से खबर मिली है कि चार शावकों के साथ आकर्षण का केंद्र बनी बाघिन कहीं नजर नहीं आ रही। टाइगर रिजर्व के अधिकारी चिंतित हैं। तभी किसी ने बताया कि सुबह कुछ लोगों ने बाघिन को देखा है। हम सब राहत की सांस लेते हैं।

तभी बाघ के मूवमेंट की खबर। इस बार डर नहीं लगता लेकिन बाघ की करीबी से सांस फिर भी रुक जाती है। यह टी-64 है। तीन साल का जवान, मस्त। झाड़ियों में बैठा टी-64 अंगड़ाई लेता उठता है और तालाब के किनारे-किनारे चलने लगता है। गाड़ियों की कतार उसके पीछे लग जाती है।

अपने विदेशी टूरिस्ट को खुश करने की होड़ में एक नौजवान ड्राइवर जोर से गाड़ी दौड़ाता है। बाघ का रास्ता बाधित होता है। सब खामोश, बाघ के पांव ठिठके, उसने गर्दन घुमाई, घूरकर देखा, कौन गुस्ताख है?

Friday, October 24, 2014

अन्नकूट यानी गोवर्धन पूजा की कथा

अन्नकूट यानी गोवर्धन पूजा दिवाली के दूसरे दिन की जाती है। इस संबंध में एक कथा प्रचलित है। कहते हैं द्वापर युग में भगवान श्रीकृष्ण अपने सखाओं, गोप-ग्वालों के साथ गाएं चराते हुए गोवर्धन पर्वत की तराई जा पहुंचे। वहां पहुंच कर उन्होंने देखा कि हजारों गोपियां गोवर्धन पर्वत के पास 56 प्रकार के भोजन रखकर बड़े उत्साह के साथ नाच गा रही हैं।  श्रीकृष्ण ने इस उत्सव का प्रयोजन पूछा, तो गोपियों ने कहा कि आज तो घर-घर में उत्सव होगा क्योंकि वृत्रासुर को मारने वाले मेघों व देवों के स्वामी इंद्र का पूजन होगा। यदि पूजा से वे प्रसन्न हो जाएं तो ब्रज में वर्षा होती है, जिससे अन्न पैदा होता है और ब्रजवासियों का भरण पोषण होता है।  तब कृष्ण बोले यदि देवता प्रत्यक्ष आकर स्वयं भोग लगाएं, तो तुम्हें यह पूजा अवश्य करनी चाहिए। इतना सुन गोपियां बोलीं कान्हाजी आप को इंद्र की इस प्रकार की निंदा नहीं करनी चाहिए। यह तो इंद्रोज नामक यज्ञ है। इसी के प्रभाव से अतिवृष्टि नहीं होती है।  श्रीकृष्ण बोले, इंद्र में क्या शक्ति है? उससे अधिक शक्तिशाली तो हमारा गोवर्धन पर्वत है। इसी के कारण वर्षा होती है। हमें इंद्र से भी बलवान गोवर्धन पर्वत की पूजा करनी चाहिए। इस बात को लेकर काफी वाद विवाद हुआ और आखिर श्रीकृष्ण की बात मानते हुए गोवर्धन पर्वत की पूजा होने लगी। सभी ग्वालों और गोपियों ने गोवर्धन पर्वत की मिष्ठान से पूजा की, उधर श्रीकृष्ण ने अपने दिव्य रूप में गोवर्धन पर्वत को चढ़ाए प्रसाद को खा लिया और उन सभी को आशीर्वाद दिया।  तभी नारद मुनि इंद्रोज यज्ञ देखने की इच्छा से ब्रज के गांव आए, तो इंद्रोज यज्ञ के स्थगित होने का समाचार उन्हें मिला। इतना सुनते ही नारद इंद्र लोक पहुंचे और उदास होकर इंद्र देव से बोले, गोकुल के निवासियों ने गोवर्धन पर्वत की पूजा करना शुरू कर दिया है। आज से यज्ञ आदि में उस पर्वत का भी भाग हो गया है।  नारदजी की बातों को सुनकर इंद्र क्रोध में लाल-पीले हो गए। गुस्से में उन्होंने मेघों को आज्ञा दी कि गोकुल में जाकर तबाही और प्रलय उत्‍पन्‍न कर दो। मेघ मूसलाधार बरसने लगे। ऐसे में सभी गोकुलवासी श्रीकृष्ण की शरण में गए और रक्षा की प्रार्थना करने लगे।  गोप-गोपियों की करुण पुकार सुनकर श्रीकृष्ण बोले, तुम सभी गोवर्धन पर्वत पर जाओ वही तुम्हारी रक्षा करेंगे। सभी गोकुलवासी गोवर्धन पर्वत की तराई में पहुंचे। श्रीकृष्ण भी उनके साथ चल दिए। उन्होंने गोवर्धन पर्वत को अपनी एक अंगुली पर उठा लिया। गोकुलवासी पर्वत की छाया में सात दिन तक रहे और अतिवृष्टि से उनकी जिंदगी बच गई।  सुदर्शन चक्र के प्रभाव से ब्रजवासियों पर एक बूंद भी जल नहीं पड़ा। यह चमत्कार देखकर ब्रह्मा जी द्वारा श्रीकृष्णावतार की बात सुनकर इंद्र देव अपनी मूर्खता पर पश्चाताप करते हुए कृष्ण से क्षमा याचना करने लगे। श्रीकृष्ण ने सातवे दिन गोवर्धन को नीचे रखा और ब्रजवासियों से कहा कि अब तुम प्रतिवर्ष गोवर्धन पूजा कर अन्नकूट का पर्व मनाया करो। तभी से यह पर्व प्रचलन में आया। -
अन्नकूट यानी गोवर्धन पूजा दिवाली के दूसरे दिन की जाती है। इस संबंध में एक कथा प्रचलित है। कहते हैं द्वापर युग में भगवान श्रीकृष्ण अपने सखाओं, गोप-ग्वालों के साथ गाएं चराते हुए गोवर्धन पर्वत की तराई जा पहुंचे। वहां पहुंच कर उन्होंने देखा कि हजारों गोपियां गोवर्धन पर्वत के पास 56 प्रकार के भोजन रखकर बड़े उत्साह के साथ नाच गा रही हैं।
श्रीकृष्ण ने इस उत्सव का प्रयोजन पूछा, तो गोपियों ने कहा कि आज तो घर-घर में उत्सव होगा क्योंकि वृत्रासुर को मारने वाले मेघों व देवों के स्वामी इंद्र का पूजन होगा। यदि पूजा से वे प्रसन्न हो जाएं तो ब्रज में वर्षा होती है, जिससे अन्न पैदा होता है और ब्रजवासियों का भरण पोषण होता है।
तब कृष्ण बोले यदि देवता प्रत्यक्ष आकर स्वयं भोग लगाएं, तो तुम्हें यह पूजा अवश्य करनी चाहिए। इतना सुन गोपियां बोलीं कान्हाजी आप को इंद्र की इस प्रकार की निंदा नहीं करनी चाहिए। यह तो इंद्रोज नामक यज्ञ है। इसी के प्रभाव से अतिवृष्टि नहीं होती है।
श्रीकृष्ण बोले, इंद्र में क्या शक्ति है? उससे अधिक शक्तिशाली तो हमारा गोवर्धन पर्वत है। इसी के कारण वर्षा होती है। हमें इंद्र से भी बलवान गोवर्धन पर्वत की पूजा करनी चाहिए। इस बात को लेकर काफी वाद विवाद हुआ और आखिर श्रीकृष्ण की बात मानते हुए गोवर्धन पर्वत की पूजा होने लगी। सभी ग्वालों और गोपियों ने गोवर्धन पर्वत की मिष्ठान से पूजा की, उधर श्रीकृष्ण ने अपने दिव्य रूप में गोवर्धन पर्वत को चढ़ाए प्रसाद को खा लिया और उन सभी को आशीर्वाद दिया।
तभी नारद मुनि इंद्रोज यज्ञ देखने की इच्छा से ब्रज के गांव आए, तो इंद्रोज यज्ञ के स्थगित होने का समाचार उन्हें मिला। इतना सुनते ही नारद इंद्र लोक पहुंचे और उदास होकर इंद्र देव से बोले, गोकुल के निवासियों ने गोवर्धन पर्वत की पूजा करना शुरू कर दिया है। आज से यज्ञ आदि में उस पर्वत का भी भाग हो गया है।
नारदजी की बातों को सुनकर इंद्र क्रोध में लाल-पीले हो गए। गुस्से में उन्होंने मेघों को आज्ञा दी कि गोकुल में जाकर तबाही और प्रलय उत्‍पन्‍न कर दो। मेघ मूसलाधार बरसने लगे। ऐसे में सभी गोकुलवासी श्रीकृष्ण की शरण में गए और रक्षा की प्रार्थना करने लगे।
गोप-गोपियों की करुण पुकार सुनकर श्रीकृष्ण बोले, तुम सभी गोवर्धन पर्वत पर जाओ वही तुम्हारी रक्षा करेंगे। सभी गोकुलवासी गोवर्धन पर्वत की तराई में पहुंचे। श्रीकृष्ण भी उनके साथ चल दिए। उन्होंने गोवर्धन पर्वत को अपनी एक अंगुली पर उठा लिया। गोकुलवासी पर्वत की छाया में सात दिन तक रहे और अतिवृष्टि से उनकी जिंदगी बच गई।
सुदर्शन चक्र के प्रभाव से ब्रजवासियों पर एक बूंद भी जल नहीं पड़ा। यह चमत्कार देखकर ब्रह्मा जी द्वारा श्रीकृष्णावतार की बात सुनकर इंद्र देव अपनी मूर्खता पर पश्चाताप करते हुए कृष्ण से क्षमा याचना करने लगे। श्रीकृष्ण ने सातवे दिन गोवर्धन को नीचे रखा और ब्रजवासियों से कहा कि अब तुम प्रतिवर्ष गोवर्धन पूजा कर अन्नकूट का पर्व मनाया करो। तभी से यह पर्व प्रचलन में आया।
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