मैने जो आशय लगाया है वह यह है
कहाँ गया वो गाँव आपना कहाँ गयी वो रीति।
कहाँ गया वो मिलना जुलना गया जमाना वीत।।
दुःख दर्द के बुरे समय में सदा काम जो आता।
मानव मानव जुड़ा रहता जिय मे होता नाता ।।
त्यौहारों पर गाया जाता कहाँ गया वो गीत।
कहाँ गया वो मिलना जुलना गया जमाना वीत।।
घर आँगन में वैठा करते,सुख दुःख की बतियाने।
इक थाली में खाया करते,मिल बाँट कर खाने ।।
महफिल जो रंगीन बनाता ,कहाँ गया वो मीत।
कहाँ गया वो मिलना जुलना गया जमाना वीत।।
उन बातों में सुख ज्यादा था,यह जीवन का सार था।
छल कपट औऱ धोकेबाजी,नही एसा व्यवहार था।।
परदेशी को चिठ्ठी लिखता कहाँ गया वो प्रीत।
कहाँ गया वो मिलना जुलना गया जमाना बीत।।
अनुवाद- ज्ञानेश कुमार वार्ष्णेय
कविता का मूल वड़े भाई सहाव श्री रतन सिंह शेखावत जी के
राजस्थानी भाषा में ब्लाग ज्ञान दर्पण पर है।
वाह ! शानदार!
ReplyDeleteदोनों कविताओं को पढ़कर कोई नहीं कह सकता कि -आप राजस्थानी नहीं जानते :)
सुंदर चित्रण.. ज्ञानेश कुमार वार्ष्णेय जी कविता का हिंदी में सजीव अनुवाद करने व् साझा करने के लिए के लिए धन्यवाद्
ReplyDelete